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मंजिल

मुसाफ़िर यूँही चलता रहा, ना ठहरा, ना रूका मंज़िल तू हि बता ना पास मैं आया, ना दूर तू गया।

बदरा

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नित काली रात बदरा छुपके आये, भरल पानी लादे अहंकार का गरजाए, सावन भादो छुपाये अम्बर अपने पंख फैलाये, खोवत अस्तित्व ज्यूँ-ज्यूँ  बरसत जाए।