कारोबार
जिसकी हर शाम दोस्तों के साथ गुजरती थी, जिसके लिए दोस्त परिवार और रिश्तेदारों से भी ज्यादा मायने रखते थे, जो एक शाम में हज़ारों रुपये दोस्तों पे उड़ा देता था, उस वैभव को क्या पता था कि उसकी जिंदगी के बुरे दिन अभी आने बाकी हैं।
वैभव अपनी अच्छी खासी वैश्विक कंपनी छोड़कर, खुद का ही कारोबार करने का सोंचता है और जितना भी धन इकठ्ठा कर रखा था वो सब लगा देता है। शुरुवात में उसकी ऑनलाइन कंपनी खूब चली और मुनाफा भी कमाया, लाखों के आवर्त से वो कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ता गया, इसी कामयाबी ने उसकी महत्वकांक्षाओं को बल दिया और सोंच को एक नया आयाम दिया। उसने अपनी कंपनी को शीर्ष पे ले जाने के लिए निवेशकों से पैसे लिए जिससे वो अपना विनिर्माण संयंत्र स्थापित करना चाहता था, उसने सारे पैसे उद्योग बनाने में लगा दिए और उसके कुछ दिनों बाद ही सरकार की नीतियाँ उस कार्य क्षेत्र के लिए बदल दी गईं।
वैभव की तेज रफ्तार भागती ज़िन्दगी अचानक दुर्घटनाग्रस्त हो गयी, उसकी गाड़ी बस पलटती जा रही थी, वो मानो एक खाई में गिर रहा हो, बार-बार हाँथ देता की कोई उसे थाम ले, लेकिन ना कोई दोस्त आया न ही कोई रिश्तेदार, यहाँ तक कि घर वालों ने भी यही कहा कि हमसे क्या पूछकर कारोबार किये थे, अच्छा खासा नौकरी कर रहे थे लेकिन पता नहीं कहाँ से बिज़नेस का भूत सवार हो गया।
वैभव ही ऐसा व्यक्ति था अपने सारे दोस्तों में जिसने जोख़िम उठाकर कारोबार किया था, जिसके लिए उसके दोस्त बहुत पीठ थप थापते थे लेकिन अब जब वो अपने दोस्तों के पास मदद मांगने जाता तो वो ये कहते कि क्या हम बेवकूफ हैं जो नौकरी कर रहे हैं, तुझे कितना समझाया था इन सब चक्करों में मत पड़ो, बिज़नेस नौकरी पेशा परिवार के बस की बात नहीं। वैभव ये सोंचता ही रह जाता कि इन्ही दोस्तों में तो वो कल तक हज़ारों रुपये उड़ा देता था, सबका बिल वही भरता था यही सोंच के की ये सब तो नौकरी में हैं, किसी तरह घर चलाते हैं चलो मैं ही भर देता हूँ एक ही बात तो है। उन्ही दोस्तों ने उसका साथ देना तो छोड़ो पूछना भी बंद कर दिया था।
नया फ्लैट, गाड़ी की ई.एम. आई , क्रेडिट कार्ड के बिल सभी धीरे-धीरे बाउंस होते चले गए, वो जब भी सोंचता अब इससे बुरा क्या होगा तो वो ज़िन्दगी के पायदान पे और नीचे लुढ़क जाता, पिछली दफा बच्चे की स्कूल फीस भरने के लिए पत्नी के कुछ जेवर भी गिरवी रखने पड़ गए थे। चार साल हो गए थे नौकरी छोड़ खुद का कारोबार करते हुए तो उसको कोई नौकरी भी नहीं दे रहा था, दे भी रहा था तो छोटे पद की नौकरी जो उसके स्वाभिमान का मज़ाक उड़ाती, सारे दरवाज़े उसके लिए बंद हो चुके थे, वो कहते हैं ना बुरे समय में साया भी साथ छोड़ देता है।
वैभव बहुत सकरात्मम विचारों वाला व्यक्ति था, उसे जल्द ही समझ आ गया कि कोई भी उसका साथ देने वालों में नहीं है, उसे इस प्रतिकूल परिस्थिति से खुद ही निकलना होगा। एक दिन अखबार में सरकार द्वारा स्टार्टअप को बढ़ावा देने वाला विज्ञापन देखा, वैभव के पास सामाजिक क्षेत्र से जुड़ी हुई एक योजना थी जो बहुत दिनों से बना कर रखा था, उसने उसका प्रदर्शन किया उद्योग विभाग में जाकर जिसे बहुत सराहा गया और सरकार ने उसकी योजना में निवेश के लिए पचास लाख रुपये आवंटित किए, वैभव पूरी लगन से अपने कारोबार को करने में लग गया, आज वैभव की कंपनी देश में ही नहीं विदेशों में भी अपना नाम कमा रही है।
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