मंदी की मार

माया जल्दी से मेरा नाश्ता लाओ मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही है, बढ़िया इस्त्री की हुई सफेद शर्ट, क्रीच वाली ग्रे पैंट, मैचिंग टाई, पॉलिश किये हुए जूते और हाँथों में चमचमाती घड़ी जो उसके ब्लेजर की आस्तीन से झाँक रही थी, डाईनिंग टेबल पे बैठा वैभव अपनी पत्नी माया को आवाज़ देता है।
दो मिनट रुको वैभव बोलते हुए माया तेजी से अपना हाथ चलाती है, नौकरानी को प्लेट और पानी लगाने को बोलती है और झटपट सुबह का नाश्ता वैभव को परोसती है।
इधर वैभव लगातार मोबाइल पे अपने ऑफिस के साथियों से बात करता रहा, नाश्ता करते हुए भी उसके मोबाइल की घंटी चुप होने का नाम नहीं ले रही थी। थ्री बी.एच. के आलीशान फ्लैट से निकल, लिफ्ट से तेरहवी मंजिल से नीचे उतर अपनी पार्किंग के पास पहुँचता है जहाँ उसका ड्राइवर रमेश काली रंग की लंबी बी.एम. डब्ल्यू कार को साफ कर रहा होता है। वैभव कार में बैठते ही बोलता है जल्दी चल रमेश आज कंपनी की बोर्ड मीटिंग गई, आज साल के आखरी तिमाही का निर्णय आना है। कांफ्रेंस हॉल में पहले से ही सभी बोर्ड के सदस्य कंपनी के सी. ई.ओ वैभव रंबानी का इंतज़ार कर रहे थे। कंपनी के सी. एफ.ओ ने सबके सामने नतीजे पेश किए, कंपनी का मुनाफा पिछली तिमाही से 20 प्रतिशत कम था, और कारोबार में भी भारी गिरावट थी। सभी सदस्यों में हड़कंप मच गई, वैभव के नेतृत्व पे उंगलियाँ उठने लगीं, वैभव खराब प्रदर्शन के लिए वैश्विक और राष्ट्रिय मंदी को ज़िम्मेदार ठहरा रहा था, लेकिन वो सबको समझाने में नाकाम रहा, सदस्यों की वोटिंग उसके खिलाफ गयी और उसे इस्तीफा देना पड़ा। जिस वैभव ने पाँच सालों में अपने अथक परिश्रम से कंपनी को बुलंदियों तक पहुंचाया था उसके दरवाज़े आज वैभव के लिए ही बंद हो चुके थे, मंदी की मार से वो आज मर चुका था।

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