शाहाबाद

आरा जिला में एक पुरानी कहावत है "आरा जिला घर बा तो कौन बात के डर बा" जितनी वहाँ की भाषा दबंग है तो वहीं भोजपुरी गानों में अलग रस भी है।
80's और 90 का दशक शाहाबाद जिला क्षेत्र के लिए बदलाव का दशक था, एक तरफ जहाँ कम्युनिस्ट ने पांव पसारने शुरू कर दिए थे जिसने नक्सल को जन्म दिया, जो बड़ी जाती वालों के लिए नासुड़ बन चुका था, जिसके कारण रणवीर सेना जैसे गुटों का जन्म हुआ, उस समय कई नरसंघार हुए जिसमे कई गांव के गांव तबाह हो गए, बड़े से बड़े रसूकदार मारे गए, कितने खेतों पे नक्सलाइट ने अपना लाल झंडा लगा दिया जिसके खिलाफ उस खेत में कोई खेती नहीं कर सकता था वहीं दूसरी तरफ 90 में बिहार में राजनीतिक परिवर्तन से सामाजिक दायरा बहुत कम हुआ जहाँ पहले कोई पिछड़ी जाति किसी फॉरवर्ड के सामने नहीं बैठ सकता था वहीं पिछड़ी जाति अपना आवाज़ उठाने लगा जिससे होने लगा सदियों से आ रहे सवर्ण जाती के शोषण का अंत जिससे आयी सामाजिक अस्थिरता, पिछड़े और सवर्णों में वर्चश्व की लड़ाई बढ़ती गयी, नए सरकार की विफलता ने बिहार को एक जंगल राज में तब्दील कर दिया।
भोजपुर जिले में एक बहुत ही रसूकदार, वसूलों के पक्के व्यक्ति हुआ करते थे जिनका नाम था ज्वाला सिंह, जाती से ठेठ राजपूत, 6 फिट की लंबाई, मोटी घुमावदार मूंछ रखते थे, ऊपर कुर्ता और नीचे चमकती हुई धोती, उनकी सब बहुत इज़्ज़त करते थे चाहे वो किसी भी जाति का हो। उनकी जुबान पत्थर की लकीर हुआ करती थी।
जब शाहाबाद में नक्सल और ऊंची जाति वाले रणवीर सेना के बीच आये दिन मार काट होने लगे थे, कभी रणवीर सेना के लोग दलित और पिछड़ी जाति बहुल गांव को जला देते थे तो कभी नक्सलाइट किसी रणवीर सेना वाले को घेर कर मार देते थे। ज्वाला सिंह को ये सब पसंद नहीं था वो इस जान माल के नुकसान से बहुत दुखी थे वो चाहते थे शाहाबाद में फिर से अमन चैन बहाल हो जाए, वो कभी नक्सल से समझौते की बात करते तो कभी रणवीर सेना से कहते लेकिन ये सब इतना आसान नहीं  था क्योंकि नक्सल अपनी आजादी से समझौता करना नहीं चाहते थे वो अब किसी ऊंची जाति वालों के सामने झुकना नहीं चाहते थे, दूसरी तरफ जो उन्हें हथियार मुहैया कराते थे वो नहीं चाहते थे कि जंग कभी खत्म हो, उनका करोड़ो का धंधा इसी अस्थिरता पे टीका था, वहीं सवर्ण भी झुकने तो तैयार नहीं थे उन्होंने जिन्हें सदियों से रौंद रखा था उन्हें सर उठता देख नहीं सकते थे।

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