बराबरी की संगति: लघुकथा

संभव बचपन से ही होनहार विद्यार्थी रहा, उसकी पढ़ाई में ज्यादा अभिरुचि रहती थी वनिस्पद खेल-कूद के, वो सीधा साधा माता पिता की आज्ञा मानने वाला सुकुमार था। उसके माता पिता गांव से थे और वो ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे, पिता जी पवन प्रसाद इंटर पास थे और माता माया देवी सिर्फ पांचवी तक पढ़ी हुई थी लेकिन संभव के पिता को पढ़ाई की अहमियत पता थी क्योंकि उन्होंने गरीब घर से होने के बावजूद किसी तरह लिपिक की नौकरी प्राप्त कर ली थी सिर्फ अपने इंटर की डिग्री के बदौलत। वो अपने बेटे को हमेशा पढ़ाई का ज्ञान देते और सही संगति वाले दोस्तों के साथ रहने की बात बताते, आखिर अपने कार्यालय के बड़े अधिकारियों को देखकर उनका भी मन करता कि उनका बेटा एक बड़ा अधिकारी बने और समाज में उनका नाम हो, पूरी ज़िंदगी प्रसाद जी ने बस दो जोड़ी कपड़ों में निकाल दी सिर्फ अपने तीनो बच्चों को पढ़ाने के लिये जिसमे संभव सबसे बड़ा बेटा था। बड़े बेटे से सभी पिताओं की बड़ी उम्मीदें ज्यादा जुड़ी होतीं हैं, वो संभव को डॉक्टर बनाना चाहते थे और उसकी पढ़ाई के लिए बहुत पैसा खर्च करते थे चाहे वो विद्यालय हो या अच्छे से अच्छे कोचिंग में पढ़ाना, उसके आने जाने के लिये एक मोटर साईकल भी खरीद दिया था और तो और अच्छा पॉकेट खर्च भी देते थे। संभव को आसानी से मिले पैसे की अहमियत ना थी वो गैर ज़िम्मेदारी से पैसे खर्च करता, उसकी दोस्ती अपने से ज्यादा रहिस लड़कों के साथ हो गयी थी जिनके पिता डॉक्टर, सरकारी अधिकारी, अभ्यंता श्रेणी के थे, उन लड़कों का पढ़ाई से कोई सारोकार ना था, संभव भी उनकी संगति में किताब का साथ छोड़ चुका था चूंकि उसके जो दोस्त थे वो उससे ज्यादा पैसे वाले थे उन्होंने पैसे की बदौलत अपना कहीं डॉक्टरी और इंजीनियरिंग में नामांकन करा लिया लेकिन संभव कहीं भी नामांकन ना करा सका और समय की तेज रफ्तार में वो बहुत पीछे छूट गया और साधारण सेल्समैन बनकर ही रह गया, तब उसे अपने पिता की बात याद आयी जिन्हों कभी कहा था बेटा आज जितना कलम घिसोगे उतना ही कल कम कलम घिसना होगा।

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