हवा कुछ कह रही थी- इश्क़ अश्क़

हवा कुछ कह रही थी
धीमे-धीमे चुपके से
फ़िज़ा में जो हो रही थी
गुफ़्तगू हमारे बारे में...

उसने सुनी थी बातें
उस पीपल के पत्तों की
जिसकी छाँव में हम
एक दूसरे से मिलते थे।

हंसते कभी, कभी तो रोते
एक दूसरे के कंधों पे
बारी- बारी सर रख कर सोंचते

आलिंगन कभी, कभी चूमते
एक दूसरे की आंखों में
हम बहुत देर तक डूबे रहते

चिंतित कभी, कभी भयभीत
अपने भविष्य के बारे में
हम कितनी ही बातें करते

जो प्रेम किया करते थे
वो सब कुछ देखा था
वो सब कुछ सुना था
उन पीपल के पत्तों ने

वो ये भी विमर्श किया करते थे
अलग-अलग धर्मों के होकर
हम दोनों कैसे मिलेंगे
इस कठोर समाज से कैसे लड़ेंगे

वो ये भी बातें किया करते थे
की हम कब तक मिला करेंगे
उनके तने से अड़ कर
हम कब तक लिपटते रहेंगे

उनको अच्छा लगता था
हमारा उनके नीचे प्रेम करना
एक दूसरे की हाँथों में हाँथ डाल
अक़ीबत के सपने बुनना

उन्होंने पूछा है इन हवाओं से ही
हमारी प्रेम कहानी के बारे में
अब इनसे मैं क्या कहूँ
हम जी रहे हैं अलग- अलग चौबारे में
आखिर मैं हवाओं से क्या कहूँ
हमारी अधूरी प्रेम कहानी के बारे में।

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