गंगा 2 book65
चाँदी सी चमकती वो
भागीरथी बन कर निकली
प्रयागराज में मिली अलखनंदा से
तो गंगा बन बह चली।
पहाड़ों में वो घूमती फिरती
छोटी बच्ची सी इठलाया करती
जैसे किसी गली में खेलते है बच्चे
वो खाड़ियों में रुनझुम खेला करती।
गंगा वादियों से निकल कर
ऋषिकेश में अलग ही नज़र है आती
हरिद्वार में खूब तेज बहती
भीड़ में थोड़ी घबराई हुई सी लगती।
अविरल बहती चंचल चमकती
गंगा कितनी सुहानी है दिखती
लेकिन हो जाती है गंदी मैली
ज्यूँ- ज्यूँ वो शहरों से गुजरती।
जहाँ- जहाँ से वो है गुजरती
धरा को उर्वरक करती जाती
निःस्वार्थ एक माँ के जैसी
वो सबका पालन पोषण है करती।
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