जिंदा लाश

मेरे शब्दों में इतनी शक्ति नहीं कि इनके दुःख को बयां कर सकूँ
मेरी ऐसी हस्ती नहीं जो इनके दर्द की एक आवाज़ बन सकूँ
कितना असहाय, मजबूर, बेबस हो जाता है इंसान
काश मुझे मिल जाती ऐसी शक्ति जिससे इनकी पीड़ा हर सकूँ
जब भगवान ने ही कर रखा है पक्षपात इनके साथ
तो मैं इंसानी हुक्मरानों को से क्या अपेक्षा करूँ
खून से लथपथ पैर रोते बिलखते बच्चे
वे सब तो पहले से ही मरे हुए है
जिंदा लाशों की दास्तान मैं आखिर कैसे बयां करूँ
मजबूर मजदूर कह कह के पुकार रहें है सभी लोग इन्हें
ये भी हमारी तरह इंसान ही हैं ये मैं किस- किस को और कैसे समझाऊं

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