जज़बातों की ड्रीम राइड
जहां से चला था घूमकर फिर वहीं खड़ा हूँ,
अभी पूर्णतः मरा नहीं, अधमरा हूँ।
टूटा-टूटा वो , छूटा-छूटा वो
रिश्ता-रिश्ता वो ,रास्ता-रास्ता वो
ये कैसा है दौर,सब रहे हैं दौड़
मंज़िलों की ओर,इंसानो की होड़।।
आकांक्षाओ और इक्षाओं के बीच,
कहीं तो आज़ादी दब सी गयी है,
हर कुछ पाने की असीम चाह में,
ज़िन्दगी देखो कहीं छूट सी गयी है,
टूटा -टूटा वो, छूटा-छूटा वो
रस्मे-रस्मे वो, राहें-राहें वो
ये कैसा है शहर लगता है डर
जिंदगी जैसे हो इक ज़हर, वक़्त जरा तू ठहर
वक़्त जरा तू ठहर।।
मन को जब खामोश अकेले टटोलता हूँ,
तो एक दर्द का आभाष होता है,
सब कुछ पाकर भी जैसे कुछ ना पाया हो,
ये जीवन अधूरा सा रह गया प्रतीत होता है।
मुसाफ़िर यूँही चलता रहा,
ना ठहरा, ना रूका
मंज़िल तू हि बता
ना पास मैं आया, ना दूर तू गया।
जहां से चला था घूमकर फिर वहीं खड़ा हूँ,
अभी पूर्णतः मरा नहीं, अधमरा हूँ।
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