कभी देखा है दीवारों पे पड़ी हुई पान के छीटों को क्या वे मामूली छीटें हैं नहीं बल्कि छाप छोड़ती असभ्यता की लकीरें हैं। कभी देखा है ट्रेन में पड़ी हुई केले और बदाम के छिलको को, क्या वे मामूली से छिल्के हैं, नहीं बल्कि छाप छोड़ती असभ्यता की लकीरें हैं। कभी देखा है रोड पे फेखी हुई घर के कचरे को क्या वो मामूली सा कचरा हैं नहीं बल्कि छाप छोड़ती असभ्यता की लकीरें हैं। कभी देखा है गाड़ियों से फेकते हुए बेकार थैली और बोतल को क्या वे मामूली से प्लास्टिक हैं नहीं बल्कि छाप छोड़ती असभ्यता की लकीरें हैं। Kabhi dekha hai.... deewaron pe padi hui.... paan ke chhitoan ko, kya ve mamuli paan ke chhintein hain, nahin balki chhap chhorti.. asabhyata ki lakerein hain. Kabhi dekha hai.... train mein padi hui... kele aur badam ke chhilko ko, kya ve mamuli se chhilke hain, nahin balki chhap chhorti, ashabyata ki lakerien hain
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