mann ke tarango ko utarne ki bas ek koshish, uthte hue saawalon ke jawab janne ki ek koshish.......
कैसा लगता है
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तू आज भी मेरे profile पे रुक जाती है ना,
पढ़ती है ना शायरी मेरे wall पे,
कभी किसी दिन comment कर बात ही देती,
कैसा लगता है तुझे पढ़ना तेरे ही दिये दर्द में बारे में।
कच्ची मिट्टी को कहाँ पता था की वो दीप बन विभा फैलाएगी घनघोर तिमिर को भेद श्री राम को इक दिन राह दिखाएगी।। कुम्हार ने तो बनाये थे बहुत सारी कृतियाँ कलश, घड़ा, घर, घरौंदा, गुल्लक इत्यादि तब वो दीया अपनी किस्मत पे था रोया भट्टी में उसको भी गया था बहुत जलाया- तपाया और वो बनकर रह गया बस एक छोटा सा दीया! साँझ होते ही जब सूर्य का उजास खो गया धरा को जब तिमिर ने अपने आगोश में ले लिया ना कलश दिख रहा था ना ही घर घरौंदा तब उस दीये ने ही फिरसे जलकर प्रकाश था फैलाया स्वाभिमान से भरा वो लौ जैसे सर उठाय खड़ा हो भगवान की आरती का सौभाग्य भी पाया लेकिन बिन बाती बिना तेल के उसका क्या अस्तित्व? शायद एक मिट्टी से ज्यादा कुछ भी नहीं ठीक वैसे ही मनुष्य (दीया) मानवता (बाती) ज्ञान (तेल) सेवा (प्रकाश) के बिना शायद कुछ भी नही...
कभी देखा है दीवारों पे पड़ी हुई पान के छीटों को क्या वे मामूली छीटें हैं नहीं बल्कि छाप छोड़ती असभ्यता की लकीरें हैं। कभी देखा है ट्रेन में पड़ी हुई केले और बदाम के छिलको को, क्या वे मामूली से छिल्के हैं, नहीं बल्कि छाप छोड़ती असभ्यता की लकीरें हैं। कभी देखा है रोड पे फेखी हुई घर के कचरे को क्या वो मामूली सा कचरा हैं नहीं बल्कि छाप छोड़ती असभ्यता की लकीरें हैं। कभी देखा है गाड़ियों से फेकते हुए बेकार थैली और बोतल को क्या वे मामूली से प्लास्टिक हैं नहीं बल्कि छाप छोड़ती असभ्यता की लकीरें हैं। Kabhi dekha hai.... deewaron pe padi hui.... paan ke chhitoan ko, kya ve mamuli paan ke chhintein hain, nahin balki chhap chhorti.. asabhyata ki lakerein hain. Kabhi dekha hai.... train mein padi hui... kele aur badam ke chhilko ko, kya ve mamuli se chhilke hain, nahin balki chhap chhorti, ashabyata ki lakerien hain
Bujha de Jo tere khwab the Bhula de Jo thi Teri manzil maan le haar bas tu abb Maan kar mukaddar isko Main girunga phir uthunga Tut ke bhi phir jutunga Bujh bujh kar hie sahi jalta rahunga Laga le tu zor jitna bhi ye zindagi...... Naa manaunga haar Ho chahe kuchh bhi Main girunga phir uthunga Main girunga phir uthunga बुझा दे जो तेरे ख़्वाब हैं भूला दे जो है तेरी मंज़िल मान ले हार बस तू अब मान कर मुक्कदर इसको मैं गिरूँगा फिर उठूँगा टूट के भी फिर जुटूँगा बुझ-बुझ कर ही सही मैं हमेशा जलता रहूँगा लगा ले तू ज़ोर जितना भी ज़िन्दगी हो चाहे अब जो कुछ भी मैं हर नहीं मानूँगा मैं गिरूँगा फिर उठूँगा।
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