दरिया for book 1

दरिया को कहाँ पसंद है दायरे में रहना,
बाढ़ बन सब कुछ बहा ले जाता है,
समंदर में समा कर भी कहाँ अस्तित्व है खोता,
लहरें बन साहिल से वही तो टकराता है।

समंदर तो रहा है हमेशा से ही नकारात्मक,
नीरस, नमकीन और निर्रथक,
भले फैला हो समस्त धरती पे... फिरभी,
चाँद को देख उसे हो जाती है घबराहट,

बार-बार चट्टानों से टकरा बिखर जाता है,
पीछे जा खुद को फिरसे समेटता,
फिर वापस पूरा जोर लगा,
दहाड़ता हुआ आज़ादी के लिए लड़ता है,

ऊष्मा से खुद को तपा भांप बन,
दरिया फिरसे बादल का अवतार लेता है,
खुद को मिटा धरती की प्यास बुझा,
फिरसे नई राह बना अविरल बहता है।

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