समय से बंधा सूर्य भी
इधर आया तो उधर भी गया,
ऊपर गया तो नीचे भी आया,
जितना भी जोर लगाया,
अंत में पराजय ही पाया,
घाट-घाट का पानी पिआ,
सीखा चाहे हो पुण्य या पाप,
मदारी ने ऐसा नाच नचाया,
पटका ऐसे के उठ ना पाया,
गिरता रहा उठता रहा
उठ-उठ के गिरता रहा
आदत सी हो गयी पराजय कि
अंत में समय ही जीतता रहा
बहुत घाव दिये समय ने,
लेकिन वही हर दाव भी सिखाता रहा,
लड़ना, जूझना, जीना हर परिस्थिति में,
वो हर भाव में हसना सिखाता रहा,
समय को गुरु मान कर
शिष्य की भांति बस सीखता रहा,
समय से बंधा तो है सूर्य भी,
फिरभी देखो कैसे वो
डूबता रहा, उगता रहा और चमकता रहा।
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