ब्रह्म की तलाश

जहां से चला था घूमकर फिर वहीं खड़ा हूँ,
अभी पूर्णतः मरा नहीं, अधमरा हूँ।

आकांक्षाओ और इक्षाओं के बीच,
कहीं तो आज़ादी दब सी गयी है,
हर कुछ पाने की असीम चाह में,
ज़िन्दगी देखो कहीं छूट सी गयी है,

मन को जब खामोश अकेले टटोलता हूँ,
तो एक दर्द का आभाष होता है,
सब कुछ पाकर भी जैसे कुछ ना पाया हो,
ये जीवन अधूरा सा रह गया प्रतीत होता है

कुछ तो है अपने अंदर जो पूर्ण स्वरूप लेना चाहता है
जैसे कैद हो इस शरीर रूपी पिंजरे में,
बेचैन, बेबस लेकिन असीम ऊर्जा से भरा
वो खुद को आज़ाद करना चाहता है,

फंस कर रह जाता है इंसान माया के जाल में
भूल जाता है कि क्यों आया है इस संसार में,
जगा अपनी चेतना को और उभर के दिखा
कैसा और कितना तूने अद्भुत ये जीवन पाया है

ज़िन्दगी की ये जद्दोजहत बस जीने के लिए नहीं
ये महज इंसान बनने के लिए नहीं,
ये जो जद्दोजहत है वो भगवान बनने के लिए है
सब में छुपा है वो ब्रह्म उसे तलाशने की जरूरत है
तराशने की जरूरत है।।

ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या, जीव ब्रह्म ईवा नपरः।


Comments

Popular posts from this blog

कच्ची मिट्टी

असभ्यता की लकीरें book26

Main girunga Phir uthunga book27